Sunday, March 16, 2008

कुछ तो बात है अपने पुराने शहरो में ...

इस महानगर की भागदौड़ में मैं शायद खो गया हूँ। मैंने अपने को खोजने नाकाम कोशिश की कुछ याद आया लेकिन धुंधला सा।
मैं इलाहाबाद में रहता था , वहाँ के रास्ते गलियां सब अपने थे, जब भी मैं अपनी साईकिल से वहाँ से निकलता था, कोई न कोई चाचा ताऊ मिली ही जाता था। मैं भी उन लोगो को बहुत अदब से नमस्कार करता था। फिर वह अपने घर ले जाते, चाची प्यार से अपने हाथो से बने लड्डू खिलाती फिर हालचाल पूछती थी। ..... लेकिन महानगर में तो कोई एक दूसरे को पहचानते ही नही। लड्डू क्या वह तो नमस्ते तक नहीं करते।
कुछ तो बात है अपने पुराने शहरो में ...

वहाँ के तयौहारों में तो पता चलता त्यौहार है। हफ्तो पहले से ही माँ तैयारी शुरू कर देती थी। वहाँ की होली की बात ही कुछ और। वह् माँ के साथ आलू के पापड़ बनवाते बनवाते चुपके से खाना, गुझिया के बनते समय गरम-गरम चखना, शाम को हास्य कवि सम्मेलन में वह हास्य की फुहार, होली जलने की रात दोस्तो के साथ शहर में घूमना, वह होली के दिन रंगो की बाल्टी, हर तरफ़ अबीर गुलाल .... लेकिन यहाँ तो भाई एक दूसरे को रंग क्या पानी की बूंद नहीं डालता।

यहाँ मरने पर चार कंधे नहीं नसीब होते है. यहाँ रहने वाले एक अजीब सी जी रहे है। जिसमे न प्यार, न रिश्ते , न जज्बात, बस जी रहे है। मेरा मानना है कि ९०% लोगो वही के है लेकिन वहाँ के लोग महानगर में आ के महानरकीय जिन्दगी जी रहे है। पता नहीं क्यों जी रहे है।

10 comments:

उन्मुक्त said...

जहां बचपन बीता हो वह कभी नहीं भूलता, न भूला जा सकता है। उसकी याद हमेशा रहती है।

Sanjeet Tripathi said...

उन्मुक्त जी से सहमत हूं।

Anonymous said...

विनीत भाई,
आपने कई साल पहले की जिंदगी एक बार फिर चलचित्र की तरह आंखो के सामने ला दी। दो बुंद चुपके से ढलक पडी और दिल गुनगुना उठा, "ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो। भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर लौटा दो मेरा बचपन, वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी॥"

Batangad said...

क्या बात है विनीतजी। चलिए इलाहाबाद की याद दिलाने वाला एक और ब्लॉग दिखा। पान की दुकान पर बहस चलती रहनी चाहिए।

Anand Verma said...

हाँ, यार पुरानी यादें ताजा हो गई, क्या सही याद दिलाए हो, सोचता हूँ इस बार होली गाँव में ही मनाऊँ, पर सोचता हूँ की महानगरों का असर अब गावों में भी साफ दिखाई देता है। क्या करें क्या नहीं कुछ समझ नहीं आता। खैर क्या कर सकते हैं...

36solutions said...

ऐसी यादों को बसाये सभी जी रहे हैं भाई, गाहे बगाहे इनकी चर्चा अवश्य होनी चाहिये । सुन्दर प्रस्तुति । धन्यवाद ।

tarun said...

दौड़ा दौड़ा भागा भागा सा। सोया सोया जागा जागा सा। और भी बहुत कुछ है अपने छोटे शहरों में। वो स्कूटर कार के हौर्न से पहचान जाना के पापा या दोस्त या भाई की गाड़ी है। । बचपन में साइकिल सीखने की कवायद करना जो किसी भी बच्चे की ज़िंदगी की सबसे अहम याद बन के रहती है। नये साल पर टीवी की कनखियों को तोड़ मरोड़ के रख देना। पैसों के क्रिकेट मैच रखना, वीसीआर पर नयी पिक्चर किराये पर लाकर देखना।। बात तो है कुछ भी कहो,,,

Siddhartha Dutta said...

well i cant express my views in hindi, but your thoughts suddenly took me to the bylanes of kolkata where i was born and brought up. thanks a lot for reminding me of my real life.

Aman said...

sir app likhte bohut badhiya hain aur is mein koi doh rahein nahin hain.
apni allahabad ki yaadon ko jis sachchaie se likha hain voh bohut achcha hain aur praerana dayak hain...

likhte rahiye

Unknown said...

Bhaiya,
Its actually nostalgia. Through this blog we can again live the precious past. This reminds us of, what is left far away and can't even get a glimpse of it in Metro Cities these days.

I believe, we all are responsible for this its not city only.

Keep posting such nice memories, which gives a pretty smile on faces.